Thursday 1 February 2018

कैसी आज़ादी?

घोर अँधेरे मे,
स्वाधीनता का बिगुल बजाया था
जब दुनिया सो रही थी, तब हमे जगाया था
खुब रही थी अकलमंदी तेरी
सारे कुकर्म करवा हमसे, तुने आजादी-आजादी चिलवाया था
प्रजातंत्र के नारे लगवा कर, प्रजा को ही मार भगाया था
जो कल तक राजा थे, आज के नेता हो गए
सियासत रही ऐसी उनकी कि शर्मिंदा हमारे अभिनेता हो गए
तख्तों-ताज के नुमाईंदो ने,
सरहदे बनाई, मुल्क को बाँटा
मानवता की हत्या की ही, लोगों के जमीर को भी काटा
फिर,
बिन फाल्गुन के धरती ये लाल हो गई,
सरहद के इस पार भी, सरहद के उस पार भी
इंसानियत फिर से कंगाल हो गई
बँटवारे के पीछे, तुने सुनहरे सपने दिखा कर,
हिन्दु-मुस्लिम के नाम पर लोगों को आपस मे लड़ा कर,
ये कैसा मुल्क बनाया?
जहाँ तिरंगे में, भगवा तो हरे के ही संग है खड़ा,
पर वास्तविकता में, मुल्क आज़ भी मंदिर-मस्जिद के नाम पर है अड़ा
जहाँ गीता बिकी, कुरान बिकी
हर चौक-चौराहे पर, औरतों की स्वाभिमान बिकी
वैश्विक अस्तर की विकाश हुई,
आम जनों की कुटिया के भीतर सिर्फ विनाश हुई
चाटुकारिता बढ़ी, धर्म के ठेकेदार पनपे,
अधर्मी लोग हुए, चावल-दुध में भगवान खनके
कई मज़लुम भुखे सो गए,
और हम आज़ाद हो गए....

घोर अँधेरे मे,
स्वाधीनता का बिगुल बजाया
और हमने भी खुद को समझाया
कि
हम आज़ाद हो गए........