Sunday 10 May 2020

माँ

झेल खुद मार दुनिया की
उसने हमें बचाया है।
इतना सरल कहां ये समझ पाना,
आखिर माँ ने हमें कैसे बनाया?
जब भ्रूण रहे थे हम, पूछ लड़का या लड़की
जग ने उसे सताया है। 
जो कोख थोड़ी भारी हुई,
रूढ़ीवादी आड़म्बरों ने भी उसे बड़ा डराया है।
ख्याल कर स्वास्थ्य हमारा,
उसने अपने स्वाद को भी मन में दबाया है। 
इतना सरल कहां ये समझ पाना,
आखिर माँ ने हमें कैसे बनाया है?
झेल खुद मार दुनिया की 
उसने हमें बचाया है।

Saturday 6 April 2019

मेरा भी किस्सा है...

माना कि तुम दूर हो,
पर तुम से मेरी यह आस है,
जो मोहब्बत है तुम्हें,
फिर क्यों असहजता का ये एहसास है?
माना कि मैं पास नहीं
जानता हूं, मैं सबसे खास नहीं
अपने और भी तुम्हारे जिनसे तुम्हें प्यार है
फिक्र भी और जिक्र भी जिनका बेशुमार है
दिन दिवाली और रात होली,
मनाती जिनके संग तु हरेक त्योहार है
माना कि तेरी जिंदगी का वो एक अभिन्न हिस्सा है
पूरी किताब ना सही, पर चार पन्नों का तो
मेरा भी किस्सा है......

तू दूर, थोड़ी पास
तू दूर, थोड़ी पास
मुझे हर एक बात का एहसास
समझ ले कि मैं हूं नहीं निराश......

Thursday 1 February 2018

कैसी आज़ादी?

घोर अँधेरे मे,
स्वाधीनता का बिगुल बजाया था
जब दुनिया सो रही थी, तब हमे जगाया था
खुब रही थी अकलमंदी तेरी
सारे कुकर्म करवा हमसे, तुने आजादी-आजादी चिलवाया था
प्रजातंत्र के नारे लगवा कर, प्रजा को ही मार भगाया था
जो कल तक राजा थे, आज के नेता हो गए
सियासत रही ऐसी उनकी कि शर्मिंदा हमारे अभिनेता हो गए
तख्तों-ताज के नुमाईंदो ने,
सरहदे बनाई, मुल्क को बाँटा
मानवता की हत्या की ही, लोगों के जमीर को भी काटा
फिर,
बिन फाल्गुन के धरती ये लाल हो गई,
सरहद के इस पार भी, सरहद के उस पार भी
इंसानियत फिर से कंगाल हो गई
बँटवारे के पीछे, तुने सुनहरे सपने दिखा कर,
हिन्दु-मुस्लिम के नाम पर लोगों को आपस मे लड़ा कर,
ये कैसा मुल्क बनाया?
जहाँ तिरंगे में, भगवा तो हरे के ही संग है खड़ा,
पर वास्तविकता में, मुल्क आज़ भी मंदिर-मस्जिद के नाम पर है अड़ा
जहाँ गीता बिकी, कुरान बिकी
हर चौक-चौराहे पर, औरतों की स्वाभिमान बिकी
वैश्विक अस्तर की विकाश हुई,
आम जनों की कुटिया के भीतर सिर्फ विनाश हुई
चाटुकारिता बढ़ी, धर्म के ठेकेदार पनपे,
अधर्मी लोग हुए, चावल-दुध में भगवान खनके
कई मज़लुम भुखे सो गए,
और हम आज़ाद हो गए....

घोर अँधेरे मे,
स्वाधीनता का बिगुल बजाया
और हमने भी खुद को समझाया
कि
हम आज़ाद हो गए........

Wednesday 29 November 2017

सुन मेरी चीखें

सुन मेरी चीखें मन तेरा भी तो रोता होगा
जानती हूँ मैं,
कहाँ तु भी चैन से सोता होगा
जब तेरे सामने मैं शर्मसार हुई थी
घटना यही बार-बार हुई थी
तेरे भीतर के दावानल की भी लपटें उठी होगी
आखिर तेरे लिए भी तो सीता लुटी होगी
शायद तेरी भी कोई वेदना, व्यथा रही होगी
उसी डर से तो तु मौन हो जाता होगा
और हर अपना तेरे लिए 'कौन' हो जाता होगा

सुन मेरी चीखें मन तेरा भी तो रोता होगा
जानती हूँ मैं,
कहाँ तु भी चैन से सोता होगा

मानवता की भावना लिए जब मैंने तेरी ओर हाथ बढ़ाया था
याद है मुझे,
कैसे तुने फटकार लगाया था
जो तेरे बच्चे मेरी ओर आ रहे थे, तुने उन्हें भी डाँट-डपटकर भीतर भगाया था,
नाराज नहीं हूँ मैं तुझसे, मुझे इस बात का भी एहसास है
कि तेरे लिए मुझसे भी ज्यादा कोई 'खास' है

आज मैं हूँ नहीं, पर मेरे ये सवाल है
रोका क्यूँ था तुने खुद को, क्या वाकई तु इतना कंगाल है????

Tuesday 25 July 2017

उम्र - एक पड़ाव

हाय रे! उम्र, तु क्यों ढ़लता है?
यूं तो ठिक था मैं, फिर भला तू क्यों बदलता है?
हाय रे! उम्र, तु क्यों ढ़लता है?
अभी बीत ही रहा था ये बचपन
जहाँ चंचल होता था हरेक पल मन,
न जाने, कब आ गई ये जवानी?
अलहड़पन, वो मौज-मस्ती
हरेक मौसम हो गई रुमानी,
बातों पर बातें, बेबाक हँसी-ठिठोली
होती थी हर रात दीवाली और दिन होली
न जाने कब ये बीत गए?
'बुढ़ापा' उम्र का ये कैसा पड़ाव,
क्या यही है, आखरी ठहराव?
सहम जाता हुँ, दिल पसीज सा जाता है,
ये बुढ़ापा क्यों आता है?
जब छोड़ अपने, आगे बढ़ जाते है
तब मन ये मेरा भी जलता
हाय रे! उम्र, तु क्यों ढ़लता है?
न तु बदलता, न मैं निर्बल मालूम पड़ता
आज मैं भी समय के साथ चलता,
यूं न अपने ही घर के किसी कोने मे पड़े मैं सड़ता

काश! ये उम्र न ढ़लता...........

Tuesday 4 July 2017

कवि

अक्षर-अक्षर जोड़ कवि जो बनूँ
गहराईयों की तलाश में, चंद शब्दों की आड़ में हर पर जलूँ
कभी स्नेह, कभी तृष्णा
जो भी मिले, संग लिये चलूँ
काँटे-कंकड़, क्षत-विक्षत
सारे आप सहुँ
तनिक आश, तुझसे मिलन की कौतुहलपूर्वक चिलमन से है झाँकती
तुम उषा तो मैं रवि, ऐसा है वो चाहती
तेरी तलब भी है, खुद से हूँ अलग भी नहीं
अब तू ही बता, "रवि बनूँ या बनूँ मैं कवि?"
आखिर मेरे सारे भेद है तू जानती.....
ईप्सा मेरी, तेरे संग रहूँ
न केवल रवि,
अक्षर-अक्षर जोड़ कवि भी बनूँ
शब्दों की आड़ से, उम्मीदों की पाड़ से भी घनिष्ठ है प्रेम मेरा
नैनों से ही, ये हर बार कहूं........
अक्षर-अक्षर जोड़ जो कवि बनूँ



Monday 3 July 2017

शोर

हर तरफ है एक शोर
"लुटा जिसने बना वही दाता"
आखिर था वो कैसा चोर?
झूठ की ऐसी अकड़,
कमजोर पड़ी, सच्चाई की पकड़
फिर भी, भूल सबकुछ
लगा रहा हूँ मैं जोर,
चल पड़ा हूँ तेरी ओर,
न फिक्र अपनों की
न करी किसी ने जिक्र उन सपनों की,
आखिर अब भी, काली क्यों है हरेक भोर?
ऐसी तबाही, ऐसा कपट
खौफ ही खौफ था, स्नेह रहा था बस आंचल में सिमट
बारिश भी हुई पर लहु की, पखविहीन है सारे मोर।
हर तरफ है बस एक शोर
"आखिर था वो कैसा चोर?" .........