एहसास-ए-मोहब्बत
मैं कराने आया हूँ
दिलों को दिलों से
मैं मिलाने आया हूँ
आरजू हो तुम मेरी
यह पैगाम मैं लाया हूँ
चाहत नहीं तुम मर-मिटो मुझपें
खुद को मैं लुटाने आया हूँ
तुम्हारी साँसों मे समाने आया हूँ
दिल मे तुम्हें बसाने, मैं आया हूँ
हक तो मेरा भी है
पर हक न मैं जताने आया हूँ
आज नहीं तो कल सही
जब चाहो तब आना
मैं तो बस तुम्हारा हूँ तुम्हारा
यह बताने आया हूँ
जीने की चाह है
पर तुम बिन कुछ भी नहीं
तुम संग जहां अपनी मैं बसाने आया हूँ.......
Tuesday 16 December 2014
आरजू
Monday 15 December 2014
तुम
न यादें है तुम्हारी
न है कोई निशां
पर इश्क है तुमसे, इतना है पता
न मिला हुँ तुझसे
न हुँ तुझसे मै जुदा
बस इतना है पता,
कई बार आरजू तेरी सिने मे होती है
तो कई बार ,
दर्द तुझ बिन जीने से होती है
बस इतना है पता, बस इतना है पता
न मुस्कुराता हुँ मैं
न रो पाता हुँ मैं
जब से जाना है तुझे, निंदे खो सी गई
अब कहाँ रातों को सो पाता हुँ मैं
तुम ही तुम हो, ख्वाबों मे मेरी
तुम ही तुम हो, बातों मे मेरी
मैं हुँ तुम ही से, इश्क भी है तुझसे
बस इतना हैं पता.......
इक लौ भी जल उठी है, बुझी-बुझी सी
खुश्बू-ए-इश्क से महक उठा है समां
हक तो नहीं है तुझपे
फिर भी तुमसे हुँ मै, बस इतना हैं पता
न जाने ये हक कैसा
कैसी इश्की ये दास्तां ?
क्या पता?!!?
बस तुम हो, सिर्फ तुम इस मन में
बस इतना ही हैं पता ....
Saturday 22 November 2014
दर्द
Attack of 26/11
प्रश्न- क्या हमारा असली अपराधी 'अजमल' था?
Bomb blast at Sitla Ghat, Banaras.
प्रश्न- लापरवाह कॊन था, केन्द्र या राज्य?
दास्तान है ये
हमारी दर्द की
थर्राहट भरी उन हल्की सर्द की
रातें थी वो कातिल
कातिल थी नीयत, कुछ मर्द की
कांप उठी मुम्बई
हिल गया पूरा देश
कुछ ऐसा हुआ विध्वंस
मानों लौट आया हो कंस
कई को मारा, कई को खोया
अजमल को दबोच धोया
मासूम आंखों का था मालिक वो
इन आंखों ने क्यों सताया?
अपराध तो था उसने किया
पर अपराधी उसे किसने बनाया???
इधर सितला घाट
मे भी मनी खून की होली
फिर एक बार चली गोली
अपनों को फिर खोया
एक बार फिर दिल रोया
दिलोदिमाग मे दर्द
मर्दानगी पर लिये दाग चल रहा है हर मर्द ........
To be continued ........
Wednesday 19 November 2014
इश्क पूरा
पर उससे कोई शिकवा-गिला नहीं
अनायास ही मिला वो
पर ये एक हसीन सिलसिला नहीं,
नजरें नजरों से टकराई
थोड़ा हम मुस्कुराये, थोड़ा वो मुस्कुराई
पर इश्क का ये काफिला नहीं,
जिस्म से रुह तक
उनकी गुफत्गू थी, लबों पे गुमनामी इश्क
आंखों ही आंखों मे फिर वो शरमाई
पर तार-ए-इश्क अब तक हिला नहीं,
न गुनगुनाहट हुई, न ही संगीत बजी
न डोली उठी, न ही दुल्हन सजी
अरमान अधूरे रहें
पर ये अधूरे इश्क का किला नहीं।
Saturday 15 November 2014
अनुभव
कोई पीछे हॆ, तो कोई आगे-आगे चल रहा हॆ
अपने अपनो को पछाडते
हर ख्वाब को उजाडते,
हर कोई चल रहा हॆ
जिंदगी नहीं, जॆसे मानों कि ये इक जुआ हॆ
जीत गये तो वाह-वाह
वरना मॊत से भी बत्तर ये इक सजा हॆ
ये पल बढ रहा हॆ
मुझे भी अपने संग घसीटे
कभी कर दे अागे, तो कभी पीछे
लहरें भी नहीं हॆ, ऒर तूफान सा समां हॆ
हर कोई चल रहा हॆ
ये जिंदगी क्या जिंदगी?
क्या में, क्या तुम
क्यों हर कोई जीत-हार की बंदगी कर रहा हॆ,
मेरे दोस्त दॊडना तो जिंदगी नहीं
ये तो खुद को पाना ऒर बनाना हॆ
न जीत , न हार , जिंदगी तो मुस्कुराकाना हॆ,
तो फिर
क्यों भीड़ के संग तू चल रहा हॆ
ये पल बढ रहा हॆ
कोई गिर तो कोई संभल रहा हॆ
विस्तार ही जीवन हॆ
अनुभव इसकी पूंजी
जीत तो तुम जाओगे ही, पहले स्वाभिमानी तो बनो
Thursday 13 November 2014
क्यों?
पर एहसास सिर्फ मुझे क्यों?
गलतियाँ सबों से हुई
पर सजा मुझे ही
जिंदगी जीता गया
जहर भी पीता गया
लोग तो कई थे
पर जहर मुझे ही क्यों?
ये एक धोखा हॆ, जो जमाना हमारे साथ करता हॆ
हर पल
पल-पल
अाखिर हम ही क्यों ?