Sunday 2 April 2017

मन - चंचल मन

पंख भी नहीं और इतनी चंचलता,
शायद यही खूबी है मन की।
एक पल यहाँ, तो एक पल वहाँ
सुनता कहाँ है ये तन की?
नफे-नुकसान की बाते समझे न
जो जी चाहे वो ले लिया,
परवाह नहीं इसे धन की।
कभी परिवार, तो कभी चाहा घर
जो मिला सब, अब चाह इसे उपवन की
स्वार्थ, अंहकार आभूषण ही थे जिसके
आज स्वंय से पहले, चिंता उसे है हरेक जन की
पंख भी नहीं और इतनी चंचलता
शायद यही खूबी है मन की।

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