Monday 8 May 2017

रेखाचित्र : एक बटवारा

भेद-भाव की नगरी का है ये दोष
खामखां नही मुझमें इतना रोष,
कभी जात-पात की डगर
तो कभी रुप-रंग मे बंटे गाँव-शहर,
कई लुटे,तो कई टूटे
न जाने कितने अपने रह गए पीछे छुटे,
ममता की आँचल भी सूनी पड़ गई ,
ये कैसी आग लगी मन मे, जो इंसानियत ही पूरी सड़ गई ?
जो सीखा था, उसे खो दिया
पूण्य-पाप का लेखा-जोखा, सब कुछ आज धो दिया,
ज्यों का त्यों रहा, बस कुछ लकीरों मे सिमट
मिटता भी नहीं मिटाए, आखिर आया कहाँ से ये कपट?

भेद-भाव की नगरी का ऐसा है ये दोष
व्यथा सारे बताऊँ कैसे, कम पड़ रहे है शब्दकोष....

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