दर्द-ए-हाल बताऊं मैं कैसे
गजल ये मैं गाऊं कैसे
अस्खों को छिपाऊं कैसे
हस कर मैं अपने गमो को भुलाऊ कैसे
जिंदगी जीने की चाहत
और कुछ पाने की इस आफत से
खुद को छुडाऊ कैसे
कहते है लोग की तुम्हें समाज ठुकरा देगा
पर जब मिट गया मै ही
तो समाज को अपनाऊं कैसे
गुमनामी के साये मे नहीं जीना है मुझे
अपने आशियाने मे रोशनी लाऊं मैं कैसे
अपने और पराये इस सोच से परे
सोचना चाहता हूं मै
कुछ पा कर, कुछ कर के जीना चाहता हूं मैं
पर ये बात उनको समझाऊं मै कैसे
अभी कमजोर नही हुआ हूं मैं
जोर अभी बाकी है
आंधी-तुफान थम जायेंगे
बस खुद को गुमनामी से निकाल पाऊं
ठिक वैसे
जैसे.........
"अल्लाह अपने बंदो को दे दिल से दुआ
रहमत उस पर बरसा दे तु खुदा,
जग का कर भला और अमन फैला यहाँ
मुझे क्या चाहिए जब रोशन है सारा जहां ।"
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