Wednesday 29 November 2017

सुन मेरी चीखें

सुन मेरी चीखें मन तेरा भी तो रोता होगा
जानती हूँ मैं,
कहाँ तु भी चैन से सोता होगा
जब तेरे सामने मैं शर्मसार हुई थी
घटना यही बार-बार हुई थी
तेरे भीतर के दावानल की भी लपटें उठी होगी
आखिर तेरे लिए भी तो सीता लुटी होगी
शायद तेरी भी कोई वेदना, व्यथा रही होगी
उसी डर से तो तु मौन हो जाता होगा
और हर अपना तेरे लिए 'कौन' हो जाता होगा

सुन मेरी चीखें मन तेरा भी तो रोता होगा
जानती हूँ मैं,
कहाँ तु भी चैन से सोता होगा

मानवता की भावना लिए जब मैंने तेरी ओर हाथ बढ़ाया था
याद है मुझे,
कैसे तुने फटकार लगाया था
जो तेरे बच्चे मेरी ओर आ रहे थे, तुने उन्हें भी डाँट-डपटकर भीतर भगाया था,
नाराज नहीं हूँ मैं तुझसे, मुझे इस बात का भी एहसास है
कि तेरे लिए मुझसे भी ज्यादा कोई 'खास' है

आज मैं हूँ नहीं, पर मेरे ये सवाल है
रोका क्यूँ था तुने खुद को, क्या वाकई तु इतना कंगाल है????

Tuesday 25 July 2017

उम्र - एक पड़ाव

हाय रे! उम्र, तु क्यों ढ़लता है?
यूं तो ठिक था मैं, फिर भला तू क्यों बदलता है?
हाय रे! उम्र, तु क्यों ढ़लता है?
अभी बीत ही रहा था ये बचपन
जहाँ चंचल होता था हरेक पल मन,
न जाने, कब आ गई ये जवानी?
अलहड़पन, वो मौज-मस्ती
हरेक मौसम हो गई रुमानी,
बातों पर बातें, बेबाक हँसी-ठिठोली
होती थी हर रात दीवाली और दिन होली
न जाने कब ये बीत गए?
'बुढ़ापा' उम्र का ये कैसा पड़ाव,
क्या यही है, आखरी ठहराव?
सहम जाता हुँ, दिल पसीज सा जाता है,
ये बुढ़ापा क्यों आता है?
जब छोड़ अपने, आगे बढ़ जाते है
तब मन ये मेरा भी जलता
हाय रे! उम्र, तु क्यों ढ़लता है?
न तु बदलता, न मैं निर्बल मालूम पड़ता
आज मैं भी समय के साथ चलता,
यूं न अपने ही घर के किसी कोने मे पड़े मैं सड़ता

काश! ये उम्र न ढ़लता...........

Tuesday 4 July 2017

कवि

अक्षर-अक्षर जोड़ कवि जो बनूँ
गहराईयों की तलाश में, चंद शब्दों की आड़ में हर पर जलूँ
कभी स्नेह, कभी तृष्णा
जो भी मिले, संग लिये चलूँ
काँटे-कंकड़, क्षत-विक्षत
सारे आप सहुँ
तनिक आश, तुझसे मिलन की कौतुहलपूर्वक चिलमन से है झाँकती
तुम उषा तो मैं रवि, ऐसा है वो चाहती
तेरी तलब भी है, खुद से हूँ अलग भी नहीं
अब तू ही बता, "रवि बनूँ या बनूँ मैं कवि?"
आखिर मेरे सारे भेद है तू जानती.....
ईप्सा मेरी, तेरे संग रहूँ
न केवल रवि,
अक्षर-अक्षर जोड़ कवि भी बनूँ
शब्दों की आड़ से, उम्मीदों की पाड़ से भी घनिष्ठ है प्रेम मेरा
नैनों से ही, ये हर बार कहूं........
अक्षर-अक्षर जोड़ जो कवि बनूँ



Monday 3 July 2017

शोर

हर तरफ है एक शोर
"लुटा जिसने बना वही दाता"
आखिर था वो कैसा चोर?
झूठ की ऐसी अकड़,
कमजोर पड़ी, सच्चाई की पकड़
फिर भी, भूल सबकुछ
लगा रहा हूँ मैं जोर,
चल पड़ा हूँ तेरी ओर,
न फिक्र अपनों की
न करी किसी ने जिक्र उन सपनों की,
आखिर अब भी, काली क्यों है हरेक भोर?
ऐसी तबाही, ऐसा कपट
खौफ ही खौफ था, स्नेह रहा था बस आंचल में सिमट
बारिश भी हुई पर लहु की, पखविहीन है सारे मोर।
हर तरफ है बस एक शोर
"आखिर था वो कैसा चोर?" .........

Monday 8 May 2017

रेखाचित्र : एक बटवारा

भेद-भाव की नगरी का है ये दोष
खामखां नही मुझमें इतना रोष,
कभी जात-पात की डगर
तो कभी रुप-रंग मे बंटे गाँव-शहर,
कई लुटे,तो कई टूटे
न जाने कितने अपने रह गए पीछे छुटे,
ममता की आँचल भी सूनी पड़ गई ,
ये कैसी आग लगी मन मे, जो इंसानियत ही पूरी सड़ गई ?
जो सीखा था, उसे खो दिया
पूण्य-पाप का लेखा-जोखा, सब कुछ आज धो दिया,
ज्यों का त्यों रहा, बस कुछ लकीरों मे सिमट
मिटता भी नहीं मिटाए, आखिर आया कहाँ से ये कपट?

भेद-भाव की नगरी का ऐसा है ये दोष
व्यथा सारे बताऊँ कैसे, कम पड़ रहे है शब्दकोष....

Sunday 2 April 2017

मन - चंचल मन

पंख भी नहीं और इतनी चंचलता,
शायद यही खूबी है मन की।
एक पल यहाँ, तो एक पल वहाँ
सुनता कहाँ है ये तन की?
नफे-नुकसान की बाते समझे न
जो जी चाहे वो ले लिया,
परवाह नहीं इसे धन की।
कभी परिवार, तो कभी चाहा घर
जो मिला सब, अब चाह इसे उपवन की
स्वार्थ, अंहकार आभूषण ही थे जिसके
आज स्वंय से पहले, चिंता उसे है हरेक जन की
पंख भी नहीं और इतनी चंचलता
शायद यही खूबी है मन की।

Friday 24 February 2017

मायाजाल

ये मायाजाल है
जहाँ सच बेहाल
और झूठ कमाल है
विडंबना भी ऐसी देखी
फकीरों की शामें रंगीन
दौलतमंद सारे कंगाल है
ये मायाजाल है,
रक्षक बने भक्षक
रिश्तों का भी बुरा हाल है
मौत तो मानों जीत
जिंदगी ही काल है
बेरंग हो गए है सब
चेहरे है काले
बस रंग-बिरंगी यहाँ गुलाल है
ये मायाजाल है

Thursday 19 January 2017

व्यापार या दुराचार ?

पहले खिला चीनी किया हमे बिमार
अब सुगर फ्री के नाम पर कर रहे हो व्यापार
भाई को भाई से लड़ा रहे हो
ताकि बेच सको तुम हथियार
कभी गायों के नाम पर लड़ाया
तो कभी राम मंदिर बनवाया
देवालय बना नहीं, पर हाँ
जो मस्जिद थी सामने, उसे तुमने ही मिटाया
बन दूत शांति के दिखाया दुनिया को तुमने अशांति का समाचार
धरती मेरी, नाम तुम्हारा
कैसा है से अत्याचार?
जो बहती थी एक नदी, उसे दूषित करवा दिया
पवित्रता मिट गई गंगा की,उसे तो तुमने गैंगेज बना दिया
कुछ तुम रूपी हम भी है यहाँ
चंद रुपयों के वास्ते ईख मे सल्फर मिला दिया
गुड़ की मिठास ही भूल गए
हमने तो शक्कर है अपना लिया
न सोचा, न समझा
बस तुम्हे सीने से लगा लिया
जो था मेरा उसे ठुकरा दिया,
खुद को गुलाम बना लिया..........

Wednesday 4 January 2017

मिलन

ये विचारो का मिलन
ये मेरी भावनाओँ का भवन
विकसित रहे, पुलकित रहे
मेरी खुशियोँ का ये चमन
थोडे काबिल हम भी
जरा गौर तो करो
अब तक कहाँ हो तुम मगन?
ये विचारो का मिलन. . . .
इन्हेँ 'कुछ भी' न कहो तुम
ये एक मुकम्मल जहां है
कही रूठ न जाए ये पवन
आधी उम्मीद हममेँ है
कुछ तुम जगा दो
कहीँ हो न जाए फिर ये दफन
ये विचारो का मिलन. . .